Friday 12 June 2015

64).KUCH YAAD HE PARVES MUSRAFji ??

भारतीय सेना द्वारा मयांमार कि कार्रवाई के बाद डरे हुए पाकिस्तान की हालत यह है कि पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ कह रहे हैं कि हमने चुड़ियां नहीं पहन रखी हमारे पास एटम बम है। पाकिस्तान कह रहा है कि हमें मयांमार न समझा जाए। आलम यह है कि कई पाकिस्तानी रक्षा विशेषज्ञ टीवी चैनलों पर 1965 और 1971 की हार को भी नकारते नजर आ रहे हैं। 1971 के उस युद्ध के बारे में जब भारत ने चंद घंटो में पाकिस्तान को खदेड़ दिया था।रात के सन्नाटे को चीरती हवा के बीच राजस्थान में पाक बॉर्डर पर आती टैंक चलने की घर्र-घर्र आवाज। यह भारतीय जवानों को इस बात का आभास कराने के लिए काफी था कि दुश्मन ने आंख उठाने की हिमाकत की है। 

4 दिसंबर 1971 की रात में पाकिस्तान की सेना ने भारत के जैसलमेर इलाके में दस्तक दी। पाकिस्तान की एक टैंक रेजिमेंट व तीन पैदल सैनिक बटालियन ने रात्रि में लोंगेवाला पर आक्रमण किया।उस समय जैसलमेर में 120 जवानों के साथ मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी कमान थामे हुए थे। कैप्टन धर्मवीर ने दुश्मन के टैंकों की आवाज सुनने के बाद चांदपुरी को सूचना दी। 



इधर पाकिस्तान ने ताबड़तोड़ गोलीबाड़ी शुरू कर दी। इस पर देश के जवानों ने उन टैंकों को नेस्तनाबूद कर दिया।

पाकिस्तान ने पूरी आर्म्ड रेजिमेंट व दो इंफेंट्री स्क्वाड्रन के साथ धावा बोलने का दुस्साहस किया था।
  रात भर की जंग के बाद सुबह भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमानों के अचूक निशानों से लोंगेवाला को पाकिस्तानी टैंकों की कब्रगाह बना डाला और देखते ही देखते पाकिस्तान के करीब 40 टैंक वहां दफन हो गए।
इस युद्ध के दौरान पाक सेना ने जैसलमेर के लोंगेवाला को कब्जे में लेने की योजना बनाई थी। दुश्मन लोंगेवाला के रास्ते जैसलमेर, जोधपुर पर कब्जा जमाने की योजना बना रहा था, लेकिन रणबांकुरों ने लोंगेवाला में ही दुश्मन देश के दांत खट्टे कर दिए।


राजस्थान के लोंगेवाला सीमा पर 4 दिसंबर की रात में पाकिस्तान ने पूरी प्लानिंग से हमला किया। दुश्मन का संकल्प था जैसलमेर में नाश्ता, जोधपुर में दोपहर का भोजन और रात्रि का भोज दिल्ली में। दरअसल पाकिस्तान के ब्रिगेडियर तारिक मीर ने अपनी योजना पर विश्वास प्रकट करते हुए कहा था कि इंशाअल्लाह हम नाश्ता लोंगेवाला में करेंगे, दोपहर का खाना रामगढ़ में खाएंगे औऱ रात का खाना जैसलमेर में होगा। उनकी हिसाब से सारा खेल एक ही दिन में खत्म होना था।

उस समय पंजाब रेजीमेंट के केवल 120 भारतीय जवान वहां तैनात थे। सामने था दुश्मन की 3000 फौजियों का दल। फिर भी भारतीय जवानों ने हार नहीं मानी और जान पर खेलकर देश के लिए लड़े और छोटी सी टोली ने दुश्मन को धूल चटा दी।

इस युद्ध के पीछे पाकिस्तान का मुख्य मकसद था भारतीय सीमा का पूर्वी हिस्सा। दरअसल पाकिस्तान ने युद्ध का यह कदम इसलिए उठाया था ताकि राजस्थान के इस इलाके पर कब्जा करके भारत-सरकार को पूर्वी सीमा (बांग्ला देश सीमा) पर समझौते के लिए मजबूर कर दिया जाए।

दरअसल 1971 में नवंबर महीने के आखिरी हफ्ते में भारतीय सेना ने पूर्वी पाकिस्तान के सिलहट जिले के अटग्राम में पाकिस्तानी सीमा पोस्टों और संचार केंद्रों पर जोरदार हमला कर दिया था। इस हमले से पाकिस्तान घबरा गया था। इससे यह लगभग तय दिख रहा था कि पूर्वी पाकिस्तान अब सुरक्षित नहीं रहा। इसके बाद पाकिस्तान को बंटवारे से बचाने के लिए याहया खान ने मो. अयूब खान की रणनीति को आजमाया।

इस रणनीति के मुताबिक पूर्वी पाकिस्तान को बचाने की कुंजी थी पश्चिमी पाकिस्तान। उनकी कोशिश यही थी कि भारत के पश्चिमी हिस्से में ज्यादा से ज्यादा इलाके को हड़प लिया जाए ताकि जब समझौते की नौबत आए तो भारत से पाकिस्तान के पूर्वी हिस्से को छुड़वाया जा सके।

भारत ने 1971 में का युद्ध लड़ा बांग्लादेश को एक अलग देश का दर्जा दिलाने के लिए। तेरह दिन तक युद्ध के बाद पाकिस्तानी सेना ने ढाका में आत्मसमर्पण कर दिया। पाकिस्तान ने 16 दिसंबर को समर्पण किया था। इसलिए इस दिन को भारतीय सेना के शौर्य के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। युद्ध समाप्त होते ही भारत ने नव घोषित बांग्लादेश का शासन वहां के जन नेताओं को सौंप दिया।

ऐसे जीते हम

> 1971 का ये युद्ध 13 दिन चला। तीन दिसंबर 1971 को शुरू हुआ ये युद्ध 16 दिसंबर को खत्म हुआ।
> इस युद्ध में भारतीय सेना के करीब 4000 सैनिक शहीद हुए। सीकर जिले के 48 सैनिक इस युद्ध में शहीद हुए।
> इस युद्ध में करीब 10 हजार सैनिक घायल हुए। पाकिस्तान के 93 हजार सैनिकों ने किया आत्मसमर्पण।
> 16 दिसंबर को शाम 4 बजकर 31 मिनट पर हस्ताक्षर हुए समर्पण के दस्तावेज।

भारतीय सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) ने ‘मार्गदर्शक’ आम आदमी के सम्मान में अपनी बॉर्डर पोस्ट का नामकरण किया है। इस पोस्ट पर रणछोड़दास की एक प्रतिमा भी लगाई जाएगी। उत्तर गुजरात के सुईगांव अंतरराष्ट्रीय सीमा क्षेत्र की एक बॉर्डर पोस्ट को रणछोड़दास पोस्ट नाम दिया है।
रणछोड़भाई रबारी ने भारत-पाकिस्तान के बीच 1965 व 71 में हुए युद्ध के समय सेना का जो मार्गदर्शन किया, वह सामरिक दृष्टि से निर्णायक रहा। जनवरी-2013 में 112 वर्ष की उम्र में रणछोड़भाई रबारी का निधन हो गया था। बीएसएफ के इन्स्पेक्टर जनरल ए के सिंहा के बताए अनुसार, केन्द्र सरकार की ओर से इजाजत मिलने पर पोस्ट को नामकरण किया गया है। संक्षिप्त में उनके बारे में जानकारी व उनके योगदान को भी अंकित किया जाएगा।

सुरक्षा बल की कई पोस्ट के नाम मंदिर, दरगाह और जवानों के नाम पर हैं, किन्तु रणछोड़भाई पहले ऐसे गुजराती हैं, जिनके 

नाम पर पोस्ट का नामकरण किया गया है। रणछोड़भाई अविभाजित भारत के पेथापुर गथडो गांव के मूल निवासी थे। पेथापुर गथडो विभाजन के चलते पाकिस्तान में चला गया है। पशुधन के सहारे गुजारा करने वाले रणछोड़भाई पाकिस्तानी सैनिकों 

की प्रताड़ना से तंग आकर बनासकांठा (गुजरात) में बस गए थे।
1965 के भारत-पाक युद्ध में क्या थी भूमिका:
साल 1965 के आरंभ में पाकिस्तानी सेना ने भारत के कच्छ सीमा स्थित विद्याकोट थाने पर कब्जा कर लिया था। इसको लेकर हुई जंग में हमारे 100 सैनिक शहीद हो गए थे। इसलिए सेना की दूसरी टुकड़ी (10 हजार सैनिक) को तीन दिन में छारकोट तक पहुंचना जरूरी हो गया था, तब रणछोड़ पगी के सेना का मार्गदर्शन किया था। फलत: सेना की दूसरी टुकड़ी निर्धारित समय पर मोर्चे पर पहुंच सकी। रणक्षेत्र से पूरी तरह परिचित पगी ने इलाके में छुपे 1200 पाकिस्तानी सैनिकों के लोकेशन का भी पता लगा लिया था। इतना ही नहीं, पगी पाक सैनिकों की नजर से बचकर यह जानकारी भारतीय सेना तक पहुंचाई थी, जो भारतीय सेना के लिए अहम साबित हुई। सेना ने इन पर हमला कर विजय प्राप्त की थी।

साल 1971:
इस युद्ध के समय रणछोड़भाई बोरियाबेट से ऊंट पर सवार होकर पाकिस्तान की ओर गए। घोरा क्षेत्र में छुपी पाकिस्तानी सेना के ठिकानों की जानकारी लेकर लौटे। पगी के इनपुट पर भारतीय सेना ने कूच किया। जंग के दौरान गोली-बमबारी के गोला-बारूद खत्म होने पर उन्होंने सेना को बारूद पहुंचाने का काम भी किया। इन सेवाओं के लिए उन्हें राष्ट्रपति मेडल सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।

जनरल सैम माणिक शॉ के हीरो थे रणछोड़ पगी:
रणछोड पगी जनरल सैम माणेक शॉ के ‘हीरो’ थे। इतने अजीज कि ढाका में माणिक शॉ ने रणछोड़भाई पगी को अपने साथ डिनर के लिए आमंत्रित किया था। बहुत कम ऐसे सिविल लोग थे, जिनके साथ माणिक शॉ ने डिनर लिया था। रणछोडभाई पगी उनमें से एक थे।


अंतिम समय तक माणिक शॉ नहीं भूले थे पगी को:
वर्ष 2009 में 27 जून को जनरल सैम माणिक शॉ का निधन हो गया। वे अंतिम समय तक रणछोड़ पगी को भूल नहीं पाए थे। निधन से पहले हॉस्पिटल में वे बार-बार रणछोड़ पगी का नाम लेते थे। बार-बार पगी का नाम आने से सेना के चेन्नई स्थित वेलिंग्टन अस्पताल के दो चिकित्सक एक साथ बोल उठे थे कि ‘हू इज पगी’। जब पगी के बारे में चिकित्सकों को ब्रीफ किया गया तो वे भी दंग रह गए।







रणछोड़भाई के कलेउ के लिए उतारा था हेलिकॉप्टर:
साल 1971 के युद्ध के बाद रणछोड़ पगी एक साल नगरपारकर में रहे थे। ढाका में जनरल माणिक शॉ ने रणछोड़ पगी को डिनर पर आमंत्रित किया था। उनके लिए हेलिकॉप्टर भेजा गया। हेलिकॉप्टर पर सवार होते समय उनकी एक थैली नीचे रह गई, जिसे उठाने के लिए हेलिकॉप्टर वापस उतारा गया था। अधिकारियों ने थैली देखी तो दंग रह गए, क्योंकि उसमें दो रोटी, प्याज और बेसन का एक पकवान (गांठिया) भर था।

पगी का पूरा नाम है रणछोड़भाई सवाभाई रबारी। वे पाकिस्तान के घरपारकर, जिला गढडो पीठापर में जन्मे थे। बनासकांठा पुलिस में राह दिखाने वाले (पगी) के रूप में सेवारत रहे। जुलाई-2009 में उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृति ले ली थी। विभाजन के समय वे एक शरणार्थी के रूप में आए थे। जनवरी-2013 में 112 वर्ष की उम्र में रणछोड़भाई रबारी का निधन हो गया था।

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